आज फिर से सोचा,
इश्क़ था, या नही था,
और वो रात जहन से निकलके,
रूबरू हुई,
ईद के चाँद कि रौशनी के दरमियान,
सर्द हवा में उड़ रही थीं,
एक लाल गुलाब कि बिखरी हुई पंखुड़ियाँ,
पर तेरे इश्क़ कि जुस्तजूँ में शायद अभी भी बंधा हुआ था,
मेरे खतों का पुलिंदा,
थोड़ा रोये तो जहन में शायरी आयी,
मैंने पूछा, वो एक ख़त जो था शायरी वाला,
वो लायी हो क्या?
वो बोली, ख़त ले लो अपने,
शायरी मेरी है...
तेरे बेबाक से बयां से कुछ खुश भी हुआ,
शायरी तो कम से कम उनकी है,
धीरे से पूछा मैंने, तो क्या फिर नही मिलेंगे,
तूने कहा, ख्यालों में,
ग़म अभी ज़ाहिर नही हुआ था खुलके,
पर तबसे ख्याल ही मेरे सबसे अज़ीज़ हुए,
मैंने पूछा, तेरा इंतज़ार करूँ?
वो बोली कब तक?
मैंने दबी जुबाँ में कहा, जब तक सांसे हैँ,
थोड़ा से हंस के वो बोली,
और अगले जनम?
तेरे गये ज़माने हुए,
पर अब भी ज़िन्दगी कतरा कतरा रिस्ती है,
झलक तेरी कभी फूलों, कभी गीतों, कभी आंसुओं में मिलती है,
हर दफा मैं पूछता हूं खुद से,
इश्क़ था, या नही था,